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अग्ने॒ त्वं नो॒ अन्त॑म उ॒त त्रा॒ता शि॒वो भ॑वा वरू॒थ्यः॑ ॥ वसु॑र॒ग्निर्वसु॑श्रवा॒ अच्छा॑ नक्षि द्यु॒मत्त॑मं र॒यिं दाः॑ ॥१॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

agne tvaṁ no antama uta trātā śivo bhavā varūthyaḥ ||

पद पाठ

अग्ने॑। त्वम्। नः॒। अन्त॑मः। उ॒त। त्रा॒ता। शि॒वः। भ॒व॒। व॒रू॒थ्यः॑ । वसुः॑। अ॒ग्निः। वसु॑ऽश्रवाः। अच्छ॑। न॒क्षि॒। द्यु॒मतऽत॑मम्। र॒यिम्। दाः॒ ॥१॥

ऋग्वेद » मण्डल:5» सूक्त:24» मन्त्र:1 | अष्टक:4» अध्याय:1» वर्ग:16» मन्त्र:1 | मण्डल:5» अनुवाक:2» मन्त्र:1


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अब चार ऋचावाले चौबीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में अग्निपदवाच्य राजविषय को कहते हैं ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे (अग्ने) राजन् ! (त्वम्) आप (नः) हम लोगों के हम लोगों को वा हम लोगों के लिये (अन्तमः) समीप में वर्त्तमान (शिवः) मङ्गलकारी (वरूथ्यः) उत्तम गृहों में उत्पन्न (वसुः) वसानेवाले (वसुश्रवाः) धन और धान्य से युक्त (अग्निः) अग्नि के सदृश मङ्गलकारी (उत) और (त्राता) रक्षक (भवा) हूजिये और जिस (द्युमत्तमम्) अत्यन्त प्रकाशयुक्त (रयिम्) धन को आप (अच्छा) उत्तम प्रकार (नक्षि) व्याप्त हूजिये और उसको हम लोगों के लिये (दाः) दीजिये ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! जैसे परमात्मा सब में अभिव्याप्त सबका रक्षक और सबके लिये मङ्गलदाता, सब पदार्थों का दाता और सुखकारी है, वैसे ही राजा को होना चाहिये ॥१॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथाग्निपदवाच्यराजविषयमाह ॥

अन्वय:

हे अग्ने ! त्वं नोऽन्तमः शिवो वरूथ्यो वसुर्वसुश्रवा अग्निरिव शिव उत त्राता भवा य द्युमत्तमं रयिं त्वमच्छा नक्षि तमस्मभ्यं दाः ॥१॥

पदार्थान्वयभाषाः - (अग्ने) राजन् (त्वम्) (नः) अस्मानस्मभ्यं वा (अन्तमः) समीपस्थः (उत) (त्राता) रक्षकः (शिवः) मङ्गलकारी (भवा) अत्र द्व्यचोऽतस्तिङ इति दीर्घः। (वरूथ्यः) वरूथेषुत्तमेषु गृहेषु भवः (वसुः) वासयिता (अग्निः) पावकः (वसुश्रवाः) धनधान्ययुक्तः (अच्छा) (नक्षि) व्याप्नुहि (द्युमत्तमम्) (रयिम्) धनम् (दाः) देहि ॥१॥
भावार्थभाषाः - हे राजन् ! यथा परमात्मा सर्वाभिव्याप्तः सर्वरक्षकः सर्वेभ्यो मङ्गलप्रदः सर्वपदार्थदाता सुखकारी वर्त्तते तथैव राज्ञा भवितव्यम् ॥१॥